Friday, July 25, 2008

जीवात्मा - परमात्मा Soul - God

पानी और उसका बुलबुला एक ही चीज है। उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा एक ही चीज है, फर्क यह है कि एक परिमित है, दूसरा अनंत; एक परतंत्र है, दूसरा स्वतंत्र। - रामकृष्ण परमहंस


वेदवाणी

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वादवत्त्यनश्ननन्यो अभिचाक शीति॥ - ऋग्वेद 1-164-20

दो पक्षी सुंदर पंखों वाले, साथ-साथ जुड़े हुए, एक दूसरे के सखा हैं। एक वृक्ष को वे सब ओर से घेरे हुए हैं। उनमें से एक वृक्ष के फल को बड़े स्वाद से चख रहा है, दूसरा बिना चखे, सब कुछ साक्षी भाव से सिर्फ़ देख रहा है। जीवात्मा परमात्मा ही ये दो पक्षी हैं, प्रकृति वृक्ष है, कर्मफल इस वृक्ष का फल है, जीवात्मा को कर्मफल मिलता है, परमात्मा प्रकृति से आसक्त हुए बिना, साक्षी भाव से जीव और प्रकृति को देख रहा है यानि दृष्टा मात्र है।


टिप्पणी - ऋग्वेद के इस मंत्र में यह समझाया गया है की प्रकृति रूपी वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं। एक पक्षी तो जीवात्मा है जो कर्म करता है और वृक्ष रूपी प्रकृति का फल चखता है जबकि दूसरा पक्षी परमात्मा है जो फल चखता नहीं है, कर्ता नहीं है तो भोक्ता भी नहीं है। इस मंत्र से यह तथ्य उजागर होता है कि ईश्वर, जीव और प्रकृति ये तीनों अनादि-अनंत हैं।

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